तूफ़ान से पहले की शांति – जब भीतर का युद्ध शुरू होता है
ज़िन्दगी में सबसे मुश्किल लड़ाई बाहर की नहीं होती… सबसे डरावनी, सबसे तकलीफदेह लड़ाई... हमारे अंदर चल रही होती है। वो लड़ाई, जहाँ एक तरफ़ हमारा डर खड़ा होता है, और दूसरी तरफ़ हमारा धैर्य। एक तरफ़ चीखते सवाल होते हैं – "कब तक सहूँ?" और दूसरी तरफ़ होती है बुद्ध की वो शांत आँखें… जो सिर्फ़ एक बात कहती हैं –
"शांत रहो… समय बदल जाएगा।"
लेकिन कैसे?
जब सब कुछ छिन जाए... जब रिश्ते टूट जाएँ... जब अपमान मिले... जब दुनिया हँसे... और तब भी अगर कोई कहे "शांत रहो", तो क्या ये आसान है?
नहीं... ये आसान नहीं है। पर यही वो राह है, जहाँ से बुद्धत्व की शुरुआत होती है।
बहुत समय पहले की बात है... एक गाँव था – शांति से भरा, लेकिन वहाँ एक युवा था जो हर रोज़ खुद से लड़ता था। नाम था अर्जुन। पढ़ा-लिखा था, बुद्धिमान था, पर ज़िंदगी ने उसे बार-बार तोड़ा। पिता की मृत्यु बचपन में, माँ का बीमार पड़ना, कर्ज़ का बोझ, और ऊपर से रिश्तेदारों का ताना – “कुछ करेगा भी या ऐसे ही रोएगा?”
वो हर रोज़ एक पहाड़ की चोटी पर जाकर चिल्लाता था –
“हे भगवान! क्यों मैं? और कब तक?”
लेकिन जवाब में सिर्फ़ हवा चलती... और सन्नाटा।
एक दिन, एक वृद्ध साधु उसी पहाड़ की चोटी पर बैठा मिला। शांत। स्थिर। मानो हवा भी उससे पूछकर गुजरती हो। अर्जुन ग़ुस्से में बोला –
“आप चुप क्यों हैं? क्या आपको दर्द नहीं होता?”
साधु मुस्कराया... और सिर्फ़ इतना कहा –
“समय कैसा भी हो, शांत रहना सीख जाओगे।”
अर्जुन हँस पड़ा, “ये कौन-सी किताबों की बात कर रहे हो? जब पेट में आग हो, मन में घाव हो – तब ये शांति के प्रवचन अच्छे लगते हैं?”
तब साधु ने एक लंबी सांस ली और बोले –
"मैं एक कहानी सुनाऊँ?"
बुद्ध एक गाँव में पहुँचे थे। वहाँ लोग उन्हें सुनने इकट्ठा हुए। एक आदमी ने उन्हें अपशब्द कहे – “तुम झूठे हो! धोखेबाज़! खुद को भगवान कहने वाले!”
बुद्ध ने कुछ नहीं कहा।
लोग चौंक गए – “भगवान! आपने कुछ उत्तर क्यों नहीं दिया?”
बुद्ध ने मुस्कराकर कहा –
“अगर कोई आपको उपहार दे और आप उसे स्वीकार ना करो, तो वो उपहार किसका रहता है?”
लोग बोले – “उपहार तो देने वाले का ही रहेगा।”
बुद्ध बोले –
“बस, वैसे ही... मैंने उसकी गाली को स्वीकार ही नहीं किया। तो अब वो गाली मेरी नहीं है, उसकी है।”
अर्जुन फूट-फूट कर रो पड़ा –
“मैं भी वही कर रहा हूँ... हर गाली, हर अपमान को पकड़ कर रख रहा हूँ... और खुद को जलाता जा रहा हूँ।”
साधु बोले –
“समय चाहे कैसा भी हो अर्जुन... तू अगर बाहर की हलचल से खुद को जोड़ता रहेगा, तो तू कभी शांत नहीं होगा। लेकिन जब तू भीतर की शक्ति से जुड़ जाएगा, तो तूफ़ान भी तुझे हिला नहीं पाएगा।”
साधु ने अर्जुन को तीन बातें बताईं, जो बुद्ध ने अपने शिष्यों को सिखाई थीं:
-
सब कुछ अस्थायी है – चाहे दुख हो या सुख।
दुख आया है, जाएगा।
सुख आया है, जाएगा।
तू नहीं बदलेगा, अगर तू स्थिर रहना सीख जाए। -
प्रतिक्रिया से पहले रुकना सीखो।
ग़ुस्से में, डर में, दुख में – जो पहला जवाब आता है, वो अक्सर गलत होता है।
बुद्ध कहते थे – "एक सांस लो, फिर उत्तर दो।" -
भीतर की आवाज़ को सुनो, बाहर की नहीं।
दुनिया बोलेगी – "तेरे बस का नहीं।"
मन कहेगा – "मैं कर सकता हूँ।"
फैसला उस आवाज़ का होना चाहिए, जो अंदर से आती है।
जब डर खुद सामने आकर खड़ा हो गया…
वो कहते हैं ना…
“जैसे ही तुम अपने अंदर शांति ढूँढने लगते हो, जीवन तुम्हें वही चीज़ सामने लाकर खड़ा कर देता है जिससे तुम सबसे ज़्यादा डरते हो।”
अर्जुन की ज़िंदगी अब थोड़ा सुकून देने लगी थी।
रोज़ पहाड़ पर बैठना, साधु से बातें करना, बुद्ध की शिक्षाओं पर ध्यान लगाना…
शांति धीरे-धीरे अंदर घर करने लगी थी।
लेकिन…
एक शाम अर्जुन जैसे ही नीचे गाँव लौटा, कुछ लोग उसके घर के बाहर खड़े थे – गुस्से में।
उनमें से एक ने कहा –
“कर्ज़ चुकाने का वक़्त खत्म हो गया है अर्जुन… अब घर बेच दो या खेत!”
अर्जुन की माँ अंदर बीमार पड़ी थी। घर में खाने को अनाज नहीं था…
और अब ये?
वो अंदर से काँप गया।
वही पुराना डर… वही बेबसी… फिर से सामने खड़ा था।
अर्जुन घर के पीछे एक सूखी ज़मीन पर जाकर बैठ गया।
न आँखों में आँसू थे, न मुँह से आवाज़।
बस दिल की धड़कनें तेज़ थीं।
वो बड़बड़ाया –
“बुद्ध कहते हैं शांत रहो… लेकिन अब क्या करूँ? अब भी शांति की बात करूँ?”
उसी वक्त साधु वहीं आ पहुँचे…
जैसे जीवन ने अर्जुन की पुकार सुन ली हो।
साधु ने पूछा –
“तू डरा हुआ है?”
अर्जुन बोला –
“हाँ… और इस बार बहुत गहरा डर है। अबकी बार सिर्फ़ ज़िंदगी नहीं… माँ की साँसे भी दाँव पर हैं।”
साधु कुछ देर चुप रहे… फिर बोले –
“यही तो असली परीक्षा है अर्जुन… तू जिन चीज़ों को खोने से डरता है, वो तुझे बाँध कर रखती हैं।”
साधु ने एक और घटना सुनाई…
एक बार गौतम बुद्ध ध्यान में बैठे थे।
उनके पास एक सैनिक आया – हाथ में तलवार थी।
वो चिल्लाया –
“अगर अभी बोले नहीं, तो मैं तुम्हारा सिर काट दूँ।”
बुद्ध ने आँखें खोलीं…
मुस्कराए… और बोले –
“तू कुछ नहीं काट सकता।”
सैनिक गुस्से में – “क्या मतलब?”
बुद्ध बोले –
“क्योंकि जिस चीज़ को तू काटना चाहता है, वो मैं नहीं हूँ। मेरा शरीर तेरा शिकार हो सकता है… लेकिन मेरी शांति नहीं।”
अर्जुन के अंदर कुछ हिला…
वो सोचने लगा –
“अगर मैं डर के सामने भी शांत रहूँ, तो शायद मैं भी उस स्थिति को नहीं, खुद को जीत लूँ।”
पर फिर डर वापस आया –
“अगर घर चला गया तो?”
“माँ का क्या होगा?”
तभी साधु ने कहा –
“डर एक तरंग है, अर्जुन… तू उसे देख, महसूस कर, लेकिन उसका हिस्सा मत बन।”
साधु ने अर्जुन से पूछा –
“क्या तू उस चीज़ के लिए तैयार है, जो सबसे जरूरी है?”
अर्जुन बोला – “मतलब?”
साधु ने कहा –
“तू सिर्फ़ सोच रहा है, डर रहा है, लेकिन कुछ कर नहीं रहा। बुद्ध ने एक बात कही थी –
‘डर तुम्हें बाँधता है, कर्म तुम्हें आज़ाद करता है।’”
अर्जुन ने उस रात एक निर्णय लिया –
“मैं डरूंगा नहीं… मैं कदम उठाऊँगा। भले ही हालात मेरे खिलाफ़ हों, लेकिन मैं भीतर से हार नहीं मानूँगा।”
अर्जुन ने अगले ही दिन गाँव के प्रधान के घर जाकर काम माँगा।
वहाँ खेतों में मजदूरी करने लगा।
दिन में माँ की सेवा करता, रात में ध्यान करता।
धीरे-धीरे लोगों ने उसकी ईमानदारी देखी, उसका संयम देखा।
और एक दिन…
वही व्यक्ति जो घर छीनना चाहता था, अर्जुन के पास आया और बोला –
“तूने बिना बदले के मेहनत की… तूने अपमान का जवाब अपमान से नहीं, कर्म से दिया। ये रहा तेरा कर्ज़नाम। फाड़ दे इसे।”
अर्जुन उस कागज़ को हाथ में लिए पहाड़ की चोटी पर गया…
और एक गहरी सांस लेते हुए कहा –
“आज मैंने समझा… डर मुझे हर बार तोड़ नहीं सकता। अगर मैं शांत रहकर, सही निर्णय ले पाऊँ – तो डर खुद झुक जाएगा।”
जब अपनों को खोने का डर मन को तोड़ने लगा…
जब ज़िंदगी तुम्हें हर ओर से तोड़ चुकी होती है, और तब कोई अपना भी अगर हाथ छोड़ दे…
तो सबसे ज़्यादा आवाज़ उसी वक्त भीतर आती है – “अब तो खत्म हो गया…”
लेकिन वहीं से बुद्ध की असली सीख शुरू होती है।
उस रात माँ को तेज़ बुखार आया। साँसे उखड़ रही थीं, आँखें उलझ रही थीं, और होठों पर एक ही शब्द था –
“अर्जुन… बेटा…”
अर्जुन भागा-भागा वैद्य को बुलाने गया।
गाँव के वैद्य ने दवा दी, लेकिन कहा –
“अब ज़्यादा समय नहीं है… बहुत कमज़ोर हो गई हैं।”
अर्जुन की दुनिया हिल गई।
घर की दीवारें जैसे खिसक गई हों…
छत जैसे गिरने लगी हो…
वो जो अब तक भीतर मज़बूती से बैठा था, अचानक चिल्लाने लगा –
“नहीं! भगवान ऐसा मत करना! अब नहीं!”
अर्जुन भागा… पहाड़ की तरफ़…
साधु वहाँ नहीं थे। वो अकेला था।
वो ज़ोर-ज़ोर से चीख पड़ा –
“तू कहता है शांत रहो… अब बता! जब माँ की जान जा रही है, तब कौन-सी शांति बचती है?”
अर्जुन की आँखें लाल थीं, और वो मिट्टी में गिरकर काँप रहा था।
तभी हवा चली… और वो आवाज़ आई… उसी साधु की।
"मृत्यु के सामने जो शांत रहना सीख जाए, वही मुक्त होता है।"
साधु ने दूर से आते हुए कहा –
“क्या तूने किसा गौतमी की कहानी सुनी है?”
अर्जुन चुप था।
साधु बोले –
“किसा गौतमी का बेटा मर गया था। वो रोती हुई बुद्ध के पास पहुँची –
‘मुझे मेरा बेटा लौटा दो!’
बुद्ध बोले –
‘मैं उसे ज़िंदा कर दूँगा… लेकिन पहले गाँव में जाओ, और एक ऐसा घर ढूँढो जहां किसी की मौत न हुई हो। वहां से एक सरसों का दाना लाओ।’
किसा पूरे गाँव घूम आई…
लेकिन कोई घर ऐसा नहीं मिला।
वो वापस बुद्ध के पास आई –
बुद्ध ने कहा –
‘मृत्यु सबका सच है। कोई इससे नहीं बचा। लेकिन इसे जानकर जो टूटता नहीं, वही जागृत होता है।’”
अर्जुन माँ के पास लौटा।
उसने माँ का हाथ थामा…
और धीरे-धीरे माँ की साँसे कम होती गईं।
लेकिन इस बार…
अर्जुन चीखा नहीं…
गिरा नहीं…
बल्कि माँ के कान में एक बात कहता रहा –
‘माँ, अब मैं समझ गया… ये शरीर जाएगा, लेकिन तेरी सीख मेरे साथ रहेगी।’
माँ के जाने के बाद गाँव के लोग आए, कंधा देने।
लेकिन जो सबसे ज़्यादा चौंक गए, वो ये देखकर कि अर्जुन का चेहरा शांत था… और उसकी आँखों में नफ़रत नहीं, समर्पण था।
लोगों ने पूछा –
“तू रो क्यों नहीं रहा?”
अर्जुन बोला –
“माँ शरीर छोड़ गई है… पर मैं जानता हूँ, वो मेरी हर साँस में है। अब रोकर मैं उसे कैसे वापस लाऊँ?”
“जिसने मृत्यु को देखा और विचलित नहीं हुआ, वही जीवन को समझता है।”
अर्जुन अब पूरी तरह बदल चुका था।
अब वह गाँव का युवा नहीं था…
अब वह बुद्ध की राह पर चलने वाला एक साधक बन चुका था।
जब दुनिया के शोर में भीतर की शांति खोने लगी…
अब तक अर्जुन ने माँ को खोया… डर को हराया… अपमान सहा… और जीवन के मायनों को समझना शुरू कर दिया था।
लेकिन दोस्तों, जीवन वहीं खत्म नहीं होता जहाँ हमें लगता है कि हमने सब कुछ समझ लिया है।
असल खेल तब शुरू होता है… जब दुनिया तुम्हारी साधना पर ताली बजाने लगती है।
सिर्फ़ एक सवाल पूछता हूँ –
क्या तुम शांति को तब भी पकड़ कर रख सकते हो,
जब पूरा संसार तुम्हें उकसा रहा हो दौड़ने के लिए?
अब लोग उसे गुरू कहने लगे थे।
उसकी बातें लोग लिखने लगे थे।
उसकी एक झलक पाने के लिए लोग लंबी यात्राएं तय कर रहे थे।
अर्जुन ने कभी यह सब नहीं चाहा था।
लेकिन अब… उसके आसपास आदर, प्रसिद्धि, और समाज का आकर्षण बढ़ने लगा था।
और धीरे-धीरे…
वही अर्जुन, जो कभी आत्मा की आवाज़ सुनता था… अब दूसरों की वाहवाही सुनने लगा।
एक दिन वो पहाड़ की उस चोटी पर पहुँचा, जहाँ साधु कभी उसे मिले थे।
लेकिन इस बार चुप्पी थी…
कोई साधु नहीं, कोई आवाज़ नहीं…
बस मन में एक सवाल:
"क्या अब मैं भी शांति को छोड़कर अहंकार की ओर बढ़ रहा हूँ?"
साधु की एक पुरानी बात याद आई…
"बुद्ध जब सबसे बड़े बन गए थे, तब उन्होंने सबसे चुपचाप बन जाना चुना।"
गौतम बुद्ध को कई राजाओं ने सोने के सिंहासन, महल, और हज़ारों अनुयायी देने की पेशकश की थी।
लेकिन बुद्ध हर बार मुस्कराकर कहते थे –
"मैं कोई गुरु नहीं, बस एक पथिक हूँ।
जिस दिन लोग मुझे देवता समझने लगेंगे, मैं सत्य से भटक जाऊँगा।"
वो उस रात सो नहीं पाया।
मन में एक द्वंद चल रहा था:
-
"क्या मैं लोगों की आँखों में बड़ा बन रहा हूँ, लेकिन अपनी आत्मा में छोटा?"
-
"क्या मैं अब खुद को बुद्ध समझ बैठा हूँ?"
अर्जुन ने अगली सुबह सबको बुलाया और कहा:
“आज से मैं फिर एक पथिक बन रहा हूँ।
मैं कोई गुरु नहीं हूँ… मैं अब फिर से खोज में जा रहा हूँ – उस मौन की, उस शांति की, जिसे मैंने खो दिया।”
गाँव वाले हैरान…
“पर आप तो हमारे गुरू हो!”
अर्जुन मुस्कराया –
“अगर मैं सच में गुरू होता, तो तुम्हें मुझसे नहीं, अपने भीतर से जुड़ने सिखाता। और वो मैं नहीं कर पाया।”
अर्जुन एक बार फिर जंगलों, पहाड़ों, और मौन की ओर बढ़ चला।
सालों बीते…
किसी ने उसे कहीं नहीं देखा।
एक छोटी सी कुटिया में एक युवा साधु पहुँचा।
वहाँ दीवार पर एक काग़ज़ चिपका था।
उस पर सिर्फ़ इतना लिखा था:
"अगर तूने सब खो दिया है,
तो अब तू खुद को पा सकता है।
अगर तू शांत रह सका है
तो तू बुद्ध बन सकता है।
समय जैसा भी हो…
तू भीतर ठहरा रहा,
यही तेरा बोधि है।"
उसने नाम छोड़ दिया था।
पर उसकी शांति अब हवा में थी,
उसकी साधना अब कहानी बन चुकी थी,
और उसकी चुप्पी अब शिक्षा बन गई थी।
अब जब तुम ये पढ़ रहे हो…
तो रुको,
साँस लो,
और खुद से एक सवाल पूछो:
“क्या मैं उस अर्जुन की तरह,
भीतर की आवाज़ को
दुनिया के शोर से ऊपर रख पा रहा हूँ?”
अर्जुन की यात्रा सिर्फ़ उसकी नहीं थी — वो हर उस इंसान की कहानी थी जो जीवन की ठोकरों के बीच खुद को खोजता है।
डर आया… वियोग हुआ… मोह ने जकड़ा… लेकिन हर मोड़ पर अर्जुन ने एक चीज़ सीखी —
अब अर्जुन कहीं नहीं है…
वो हर उस शख्स के भीतर जीवित है,
जो बुरे समय में भी शांति को थामे रहता है।
|| बुद्धं शरणं गच्छामि ||
|| जीवन एक साधना है… शांति उसकी अंतिम प्राप्ति ||
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